
एडिटर/संपादक:-तनीश गुप्ता,खण्डवा
वर्ण व्यवस्था को लोग नगण्य मानते हैं जबकि सनातन धर्म का मूल ही वर्ण व्यवस्था है-उपमन्युजी
आज भागवत कथा में रूक्मिणी श्रीकृष्ण विवाहोत्सव मनाया जायेगा,
खंडवा। व्यक्ति को जीवन में सदा भगवान की कृपा का अनुभव करते रहना चाहिए। सुख और दुख सर्दी-गर्मी की तरह आने जाने वाले हैं। जिस प्रकार दुख बिना प्रयास किये प्राप्त होते, उसी प्रकार सुख के लिए भी अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं है। आज के परिवेष में वर्ण व्यवस्था को लोग नगण्य मानते है। जबकि सनातन धर्म का मूल ही वर्ण व्यवस्था है।
यह विचार श्री खाटू श्याम मंदिर परिसर रामनगर में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के पंचम दिवस वृंदावन से पधारे कथा व्यास पंडित बनवारी भाई उपमन्युजी महाराज ने कही। समाजसेवी सुनील जैन ने बताया कि भागवत कथा में उपमन्युजी ने बहुत सुंदर बालकृष्ण की माखन चोरी, लीलाओं का वर्णन किया। गोवर्धन पूजा व छप्पन भोग ग्रहण कर सभी भक्त कृतार्थ हो गये। महाराजजी ने बताया भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों को इंद्र देव के प्रकोप से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को 7 दिनों तक उठाया था, बिना कुछ खाए-पिए। ब्रजवासियों ने 7 दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण को 56 भोग लगाए, जिनमें 7 दिनों के 8 पहर के हिसाब से 56 व्यंजन शामिल थे। ब्रजवासियों ने इस भक्ति को दर्शाते हुए 56 भोग तैयार किए। 56 भोग में सभी प्रकार के स्वादों को शामिल किया जाता है। कथा के दौरान बड़ी संख्या में मौजूद श्रद्धालु भजनों पर जमकर झूमे और कथा श्रवण की। कथा के मुख्य यजमान दिलीप पाटील व श्रीमती मेघा पाटील ने बताया की सोमवार को कथा में रूक्मिणी-श्रीकृष्ण विवाहोत्सव है, सभी श्रद्धालु कथा सुनने पधारें।
इंद्रदेव का अंहकार दूर करने भगवान ने रची थी लीला…..
एक बार इंद्रदेव को अभिमान हो गया, तब लीलाधारी श्री ने एक लीला रची। एक दिन श्री कृष्ण ने देखा कि सभी ब्रजवासी तरह-तरह के पकवान बना रहे हैं पूजा का मंडप सजाया जा रहा है और सभी लोग प्रातःकाल से ही पूजन की सामग्री एकत्रित करने में व्यस्त हैं। तब श्रीकृष्ण ने योशदाजी से पूछा, मईया ये आज सभी लोग किसके पूजन की तैयारी कर रहे हैं, इस पर मईया यशोदा ने कहा कि पुत्र सभी ब्रजवासी इंद्र देव के पूजन की तैयारी कर रहे हैं। तब कन्हैया ने कहा, कि सभी लोग इंद्रदेव की पूजा क्यों कर रहे हैं, तो माता यशोदा उन्हें बताते हुए कहती हैं, क्योंकि इंद्रदेव वर्षा करते हैं और जिससे अन्न की पैदावार अच्छी होती है और हमारी गायों को चारा प्राप्त होता है। तब श्री कृष्ण ने कहा कि वर्षा करना तो इंद्रदेव का कर्तव्य है। यदि पूजा करनी है तो हमें गोवर्धन पर्वत की करनी चाहिए, क्योंकि हमारी गायें तो वहीं चरती हैं और हमें फल-फूल, सब्जियां आदि भी गोवर्धन पर्वत से प्राप्त होती हैं। इसके बाद सभी ब्रजवासी इंद्रदेव की बजाए गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे। इस बात को देवराज इंद्र ने अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर प्रलयदायक मूसलाधार बारिश शुरू कर दी। जिससे हर ओर त्राहि-त्राहि होने लगी। सभी अपने परिवार और पशुओं को बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। तब ब्रजवासी कहने लगे कि यह सब कृष्णा की बात मानने का कारण हुआ है, अब हमें इंद्रदेव का कोप सहना पड़ेगा। भगवान कृष्ण ने इंद्रदेव का अंहकार दूर करने और सभी ब्रजवासियों की रक्षा करने हेतु गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लिया। तब सभी ब्रजवासियों ने गोवर्धन पर्वत के नीचे शरण ली। इसके बाद इंद्रदेव को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने श्री कृष्ण से क्षमा याचना की। इसी के बाद से गोवर्धन पर्वत के पूजन की परंपरा आरंभ हुई।