वसुंधरा के रजोनिवृत होने का पर्व है “रज संक्रांति और भूमिदहन”
ओडिया संस्कृति के इस पर्व की परंपराएं पूर्वी छत्तीसगढ़ में भी प्रचलित
भारत भिन्न-भिन्न एवं विविध का देश है, जो इस विशाल देश की संस्कृति को ही एक सूत्र में बांधकर रखता है। संस्कृति की अजस्र धारा सभी प्राणियों को अपने पीयूष से सिंचित कर पुष्पित पल्लवित कर पोषण प्रदान करती है। हमारी संस्कृति प्रकृति के साथ जुड़ी हुई है। प्रकृति के बिना हम संस्कृति की कल्पना भी नहीं कर सकते।
यही संस्कृति मनुष्य को ज्ञान प्रदान कर संगीत प्रदान करती है। हमारी संस्कृति में पृथ्वी को भी स्त्री रूप में ही माना गया है। पृथ्वी का भगवान विष्णु अवतार धारण करते हैं और शास्त्रों में भू देवी भगवान विष्णु के नाम से जानी जाती है। जब पृथ्वी को स्त्री के रूप में माना जाता है तो उसके साथ उसी रूप में व्यवहार किया जाता है।
“प्रकृति की आराधना का पर्व “राज” संक्रांति”
पृथ्वी का भू देवी के रूप में पूजन किया जाता है। आरण्यक जब गृह बनाते हैं तो भूमिहार देवता का पूजन कर वह गृह के लिए उपयुक्त भूमि मांगते हैं जो गृहस्थ के लिए मंगलकारी हो और इसी मंगल की आकांक्षा से समस्त देवी देवताओं की आराधना की जाती है। हमारे लगभग सभी त्यौहार प्रकृति के साथ ही जुड़े हुए हैं।
की कामना करते हैं। जहां एक ओर आज भी स्त्री के रजस्वला होने को छुपाया जाता है, वहीं यहां पृथ्वी के रजस्वला होने के सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के माध्यम से प्रथम वर्षा का स्वागत किया जाता है।
ओड़िसा तथा सीमांत छत्तीसगढ़ के कौड़िया और फ़ूलझर राज में कृषकों द्वारा भूमि दहन उत्सव मनाया जाता है। यह पर्व तब मनाया जाता है जब सूर्य का मिथुन राशि में प्रवेश होता है। इस समय ज्येष्ठ माह से आषाढ़ माह में प्रविष्ट करने पर पृथ्वी के ताप में परिवर्तन होता है, जो पृथ्वी के अंकुरण के लिए उपयुक्त होता है। इस समय यदि पृथ्वी पर कोई बीज बोया जाए तो वह निश्चित ही उत्पन्न होता है।
“ॠतुमति वसुंधरा का होता है गर्भाधान”
यह मान्य है कि इस समय वसुंधरा तुम्हारी होती है। रजस्वला होने के पश्चात जिस तरह एक स्त्री गर्भाधान के लिए तैयार होती है, उसी तरह सूर्य के मिथुन राशि में प्रवेश करने पर भूमि भी बीजारोपन के लिए तैयार होती है। इसलिए भूमि की इस गर्मी के मौसम के लिए उपयुक्त मानक भूमि दहन उत्सव मनाया जाता है।
की कामना करते हैं। जहां एक ओर आज भी स्त्री के रजस्वला होने को छुपाया जाता है, वहीं यहां पृथ्वी के रजस्वला होने के सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के माध्यम से प्रथम वर्षा का स्वागत किया जाता है।
“राज संक्रांति-भूमि दहन”
“यह पर्व चार दिनों का मनाया जाता है। चार दिनों के इस पर्व में कई दिलचस्प बातें होती हैं। पहले दिन को प्रथम राज, दूसरे दिन को मिथुन संक्रांति, तीसरे दिन को भूमि-दहनो और चौथे दिन को वसुमति स्नान कहा जाता है। इस पर्व में तीन दिन सूर्य को जल का अर्घ्य दिया जाता है तथा पहले दिन पृथ्वी को जल, दूसरे दिन प्रवाल का रस एवं तीसरे दिन मीठे दूध का अर्पण किया जाता है।”
पर्व के पहले दिन सुबह जल्दी उठकर महिलाएं नहाती हैं। बाकी के 2 दिनों तक स्नान नहीं किया जाता है। फिर चौथे दिन पवित्र स्नान कर के भू देवी की पूजा और कई तरह की चीजें दान की जाती है। चंदन, सिंदूर और फूल से भू देवी की पूजा की जाती है। एवं कई तरह के फल चढ़ाए जाते हैं। इसके बाद उनको दान कर दिया जाता है। इस दिन का भी दान किया जाता है। लड़कियाँ मेंहदी लगें और झूले झूलती हैं।
की कामना करते हैं। जहां एक ओर आज भी स्त्री के रजस्वला होने को छुपाया जाता है, वहीं यहां पृथ्वी के रजस्वला होने के सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के माध्यम से प्रथम वर्षा का स्वागत किया जाता है।
जिस तरह एक रजस्वला स्त्री तीन दिन के बाद चौथे दिन स्नान कर पवित्र होती है उसी तरह माना जाता है कि पृथ्वी (लक्ष्मी) भी चौथे दिन जब वसुमती स्नान कर पवित्र होती है तब घरों में लहसुन चढती है और विभिन्न पकवान बनाए एवं भगवान को भोग लगाती है लगाया जाता है। प्रसाद ग्रहण किया जाता है और सभी लोग मिलकर उत्सव मनाते हैं। यह पारंपरिक सदियों से चली आ रही है।
की कामना करते हैं। जहां एक ओर आज भी स्त्री के रजस्वला होने को छुपाया जाता है, वहीं यहां पृथ्वी के रजस्वला होने के सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के माध्यम से प्रथम वर्षा का स्वागत किया जाता है।
“पृथ्वी लक्ष्मी का ही एक रूप”
पृथ्वी को लक्ष्मी का ही एक रूप माना जाता है क्योंकि वह जीवन यापन के लिए धन धान्य प्रदान करती है। इसके बाद किसान अपने खेतों में जाकर घर धूप देकर देवों की स्मृति कर खेतों में बीजारोपन करते हैं तथा अच्छी फसल की कामना करते हैं। जहां एक ओर आज भी स्त्री के रजस्वला होने को छुपाया जाता है, वहीं यहां पृथ्वी के रजस्वला होने के सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के माध्यम से प्रथम वर्षा का स्वागत किया जाता है।
आज से वंसुधरा ऋतुमति हो रही है
आज से वंसुधरा ऋतुमति हो रही है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हर स्त्री ॠतुमति या रजस्वला होती है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में झूले बंधते हैं, सजाते हैं। कन्याओं के झूले झूलते हैं और साड़ी की चीजें घर-घर में खड़ी होती हैं तथा वसुंधरा के ऋतुमती होने के इस पर्व को प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी 14 जून से 17 जून तक धूम धाम से मनाया जाएगा।